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Tuesday, May 9, 2017

Jain philosophy/Ram,Laxman, seeta,aur Ravan ka karma

                           श्री महावीराय नमः

              परम पूज्य  मुनि श्री 108 हितेन्द्र सागर जी महाराज

राम सीता और रावण कर्म की कैसी विचित्रता

👉राम, सीता, लक्ष्मण और रावण  के कर्मों की विचित्रता👈

राम : दीक्षा लेकर उसी भव में “सिद्धपद” की साधना करते हुए, केवल ज्ञान पाकर “मोक्ष” गए.

सीता: दीक्षा लेकर घोर तप करके १२वे देवलोक में “प्रतिंद्र” के रूप में उत्पन्न हुई.

देवलोक में रहते हुए श्री राम को “ध्यानमग्न” देखा. उनके साथ “धर्मचर्चा” करने की “इच्छा” जागी. “देवलोक” से “सीता” का रूप धारण करके उन्हें “उपसर्ग” किया किन्तु श्री राम विचलित नहीं हुवे. “राम” ध्यान में आगे बड़े….और “केवल ज्ञान” पाया.

तब सीता ने माफ़ी मांगी और लक्ष्मण और रावण के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की. श्री राम ने बताया कि लक्ष्मण “चौथी नरक” में है और “रावण” “तीसरी नरक” में.

चूँकि कोई भी देव “तीसरी नरक” से आगे नहीं जा पाता इसलिए “देव” (सीता) ने “तीसरी नरक” जाकर “रावण” को “प्रतिबोध” दिया.

आगे के भव:

१. “सीता” के कारण लक्ष्मण और रावण दोनों नरक से निकलकर मनुष्य और तिर्यंच के अनेक भव करते हुवे हर बार एक दूसरे को मारेंगे. इसलिए बार बार नरक में जाएंगे. अंत में नरक से निकलकर (कर्म भोगकर) सगे भाई बनेंगे जिनमें अत्यंत प्रेम होगा.

२. फिर देवलोक में उत्पन्न होंगे.

३. फिर साथ में “मनुष्य” का जन्म लेंगे.

४. फिर देवलोक में

५. फिर साथ में “राजपुत्र “(मनुष्य का जन्म लेंगे) बनेंगे. दीक्षा लेंगे.

६. फिर साथ में ७वे देवलोक में

७. अब “सीता” का जीव “भारत क्षेत्र” में “चक्रवर्ती” बनेगा. रावण और लक्ष्मण के जीव उनके “इंद्ररथ” और “मेघरथ” नाम के पुत्र बनेंगे.

८. तीनों मरकर अनुत्तर विमान में अहींद्र होंगे.

९. वहां से निकलकर “रावण” तीर्थंकर और “सीता” का जीव उनका “गणधर” बनेगा. लक्ष्मण का जीव “घातकी खंड” में चक्रवर्ती के साथ “तीर्थंकर” बनेगा.

विशेष:
जिस “रावण” ने “कुबेर” की पट्टरानी “उपरंभा”को वापस भेजा और वही “शीलवान” सीता के “रूप” के  आगे हार गया.

कर्म की कैसी विचित्रता है!

हम कर्म कैसे कर रहे हैं, क्या अब भी उन्हें “समझना” नहीं चाहेंगे ?


Jain philosophy/ Jeevandhar Kumar story

                           श्री महावीराय नमः

              परम पूज्य  मुनि श्री 108 हितेन्द्र सागर जी महाराज

राजा सत्यंधर विजया रानी को पाकर सभी राज्यकाज मंत्री काष्ठांगार को सौंपकर दिन-रात वासनाओं में मग्न रहने लगे । एक दिन अवसर पाकर मंत्री ने राजा सत्यंधर को समाप्त करने की योजना बना डाली । राजा को पता चलने पर उन्होंने गर्भवती विजया रानी को मयूरयंत्र (एक प्रकार का निश्चित अवधि तक हवा में उड़ने वाला वाहन) में बिठाकर उड़ा दिया । राजा के बहुत संघर्ष करने के बाद भी धोखेबाज मंत्री ने राजा को मार दिया ।

इधर वह मयूरयंत्र एक श्मशान में जाकर गिरा, जहाँ पर विजया रानी ने पुत्र जीवंधरकुमार को जन्म दिया । बालक के पालन-पोषण के लिए साधनविहीन असहाय विजया रानी बालक को वहीं पर छोड़कर पास में छिपकर बालक के भाग्य की परीक्षा करने लगी । इतने में सेठ गंधोत्कट अपने मृत बालक का अंतिम संस्कार करने श्मशान में आया था । वहाँ उसने इस सुन्दर सुडौल भाग्यशाली बालक जीवंधर को पाकर उसका यथाविधि पालन-पोषण किया ।

बालक के बड़े होने पर गंधोत्कट ने गुरु आर्यनंदी के पास उसे पढ़ने के लिए भेज दिया । जीवंधरकुमार जब पढ़कर पूरी तरह निष्णात हो गए, तब एक दिन गुरु आर्यनंदी ने अपने शिष्य जीवंधरकुमार से कहा, "बेटे ! जिस राज्य में तुम नगण्य प्रजा बनकर भटक रहे हो, वह राज्य तुम्हारा ही है । तुम इस राज्य के अधिपति राजा हो । तुम्हारे राज्य पर मंत्री काष्ठांगार ने अन्यायपूर्वक तुम्हारे पिता को मारकर अपना अधिकार कर रखा है । नौकर मालिक बना हुआ है और मालिक तुच्छ प्राणी ।"

यह सुनते ही जीवंधरकुमार का क्षत्रियत्व जाग उठा । वे काष्ठांगार पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो गये । यह देखकर गुरू आर्यनंदी ने कहा, "शिष्य ! अब तुम शास्त्र एवं शस्त्र दोनों ही विद्याओं में निपुण हो चुके हो, तब क्या मुझे गुरु दक्षिणा नहीं दोगे ?"

कुमार ने कहा, "गुरुदेव ! आपके चरणों में सर्वस्व समर्पित है । बोलिये, आपको गुरुदक्षिणा में क्या दूँ ?" गुरु ने कहा, "बेटे ! तुम एक वर्ष तक आक्रमण नहीं करोगे, मुझे यही गुरुदक्षिणा चाहिए । एक वर्ष तक तैयारी करो, उसके पश्चात ही आक्रमण करना ।" जीवंधरकुमार ने सहर्ष गुरु आज्ञा स्वीकार की और पूरी तैयारी करके एक वर्ष बाद चढ़ाई कर अपना राज्य प्राप्त कर लिया ।

इसी प्रकार यह संसारी प्राणी अपने ध्रुव स्वाभावी परमात्मा को भूलकर और प्राप्त पर्याय को ही अपना सर्वस्व मानकर इस संसार में भटकता हुआ दुःख भोगता रहता है । जब आचार्यदेव इसको सम्बोधित कर कहते हैं कि, "हे भव्य प्राणी ! तू पर्याय को गौणकर अपने द्रव्यस्वभाव को देख, अरे भव्यात्मा तुझे मात्र इस पर्याय को गौण करना है, इसका अभाव नहीं करना है । इसी प्रकार अपने द्रव्यस्वभाव को मुख्य करना है, उसे नवीन उत्पन्न नहीं करना है । तू तो स्वभाव से वर्तमान में ही अचिंत्य शक्तिशाली देव है, तू चैतन्य चिंतामणि रत्न है, तू ज्ञान और सुख का भंडार है, बाहर क्यों भटक रहा है ? तू देव ही नहीं देवाधिदेव परमात्मा है । द्रव्यस्वभाव से देखने पर सिद्ध जैसा त्रिकाल शुद्ध आत्मा भीतर विराजमान है, जिसे कारणपरमात्मा कहते हैं । ऐसा सुनकर जो जागृत हो उठता है, वही अनंत सुखी कार्यपरमात्मा बन जाता है ।"


Jain philosophy/Gunsthan aur unka swaroop/ mithyatav

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