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Thursday, May 11, 2017

Jain philosophy/ क्षमा वीरस्य भूषणं

                            श्री महावीराय नमः
          परम पूज्य 108 श्री हितेन्द्र सागर जी महाराज
क्षमा वीरस्य भूषणम 

सम्राट उदयन ने चण्डप्रद्योत को बन्दी बना लिया, किन्तु पर्यूषण पर्व निकट आ जाने से उसने चण्डप्रद्योत से क्षमायाचना की । 

चण्डप्रद्योत की आँखें आग उगलने लगी और बोले, "क्षमा ! मैं और क्षमा ! कभी नहीं । यह ढोंग है । सम्राट एक बन्दी राजा से क्षमा माँगे । यह और कौनसी नई चाल है उदयन ! अब क्या शेष है मेरे पास ? जिसे हथियाने ईए लिए यह स्वाँग रचा है ? कहाँ राजमहलों में सुख की नींद, कहाँ यह लोहे का पिंजड़ा ? ओफ्फ, श्रृंखलाओं में बाँधकर भी तुम्हें सन्तोष नहीं हुआ ? हट जाओ मेरे सामने से । जले पर नमक छिड़कने आए हो ?" 

सम्राट उदयन बोले, "मैं सचमुच क्षमा माँगने आया हूँ प्रद्योत । यह कोई चाल नहीं है । चण्डप्रद्योत मैं तुम्ही से क्षमा माँगने आया हूँ । मैंने आज क्षमावाणी पर्व मनाया है । आज मैं सम्राट नहीं, केवल मानव हूँ मानव । मैंने प्राणीमात्र से क्षमा माँगी है प्रद्योत । तुम भी मुझे क्षमा कर दो ।" 

चण्डप्रद्योत बोले, "आह ! क्षमावाणी की भी यह विडम्बना । उदयन ! जाओ अपने मित्र राजाओं से क्षमा माँगो । अपने से बड़े राजाओं से क्षमा माँगो । मेरी क्षमा से तुम्हारा क्या होने वाला है ?" 

सम्राट उदयन बोले, "नहीं प्रद्योत, ऐसा न कहो । उदयन हाथ जोड़ता है । क्षमा कर दो मुझे । तुम्हारे बिना मेरी क्षमावाणी अधूरी रह जाएगी ।" उदयन गिड़गिड़ाने लगा । 

चण्डप्रद्योत बोले, "तो सुनो सम्राट, क्षमा तब होती है, जब दोनों के मन से वैर विरोध निकल जाए । क्षमा तब होती है जब एक-दूसरे के मन स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाएँ । क्षमा तब होती है जब दोनों आपस में गले मिले । मैं श्रृंखलाओं में जकड़ा रहूँ और आप सिर पर सम्राट का मुकुट बाँधे रहें, क्या ऐसे में क्षमा संभव है ? क्षमावाणी मनाना है तो प्रद्योत सम्राट से सम्राट की तरह ही मिलेगा ।" 

सम्राट उदयन ने सैनिक को बँधन खोलने हेतु आदेश दिया ।

उदयन की आज्ञा पाते ही प्रद्योत के बँधन खोल दिए गए । उसका राज्य उसे वापस देने की घोषणा कर दी गई । 

अपार जन-समुदाय के बीच लोगों ने देखा कि दो सम्राट गले मिल रहे हैं । बहुत काल से बिछड़े हुए भाइयों की तरह । उनकी आँखें डबडबा आई, वे क्षमावाणी जो मना रहे थे । 


Jain philosophy/Gunsthan aur unka swaroop/ mithyatav

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