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Monday, May 8, 2017

Jain philosophy/ आत्म दर्शन

                              श्री महावीराय नमः
               परम पूज्य मुनि श्री 108 हितेन्द्र सागर जी महाराज

1. मुझे वस्तु के अस्तित्व की श्रद्धा क्यों नहीं आती ? ऐसा स्वरूप को समझकर पकड़ ।
2. मेरा भगवान आत्मा मेरे पास सदैव विद्यमान है ।
3. जिन बिम्ब मेरा प्रतिबिम्ब हैं । जिन प्रतिमा जिन सारखी । मेरा ही द्रव्य अरिहन्त जैसा वीतरागी, परमात्मा जैसा है ।
4. भगवान मेरे समक्ष हैं, मुझमें ही हैं । सिर्फ मुझे अपना अन्तर्मुखी द्वार खोलना है ।
5. मैं सुख-शान्ति, आनंद, ज्ञान, पुरुषार्थ स्वरूप चैतन्य आत्मा हू ।
6. परम पारिणामिक, परम भाव स्वरूप परमात्मा हूँ एवं सभी से भिन्न हूँ ।
7. ''जानने योग्य जैसा जाना जाता है, वैसा ही मैं हूँ ।''
8. 'अहम' को मैंने अपने स्वभाव में स्थापित कर लिया है ।
9. ''सोsहम'' वही तो मैं हूँ । अनुभव और एकाग्रता की अपेक्षा स्वरूप की प्राप्ति का मार्ग पूरा हो जाता है ।
10. पूर्ण का आदर करनेवाला सम्पूर्ण हो जाएगा ।

Jain philosophy/जीने की कला

                            श्री महावीराय नमः

              परम पूज्य  मुनि श्री 108 हितेन्द्र सागर जी महाराज


अनेक विद्याओं के विशेषज्ञ प्रोफेसर साहब गंगा नदी पार करने के लिए नाव में बैठ गये । नाव में बैठे हुए उन्होंने नाविक से पूछा, "क्यों मल्लाह भाई ! तुमको ज्योतिष विद्या आती है क्या ?"

नाविक बोला, "बाबूजी, मुझे कुछ नहीं आता । मैं तो मूर्ख आदमी हूँ ।" 

प्रो. साहब ने कहा, "तेरी जिन्दगी पानी में ही चली गई । अच्छा भाई, गणित तो तुझे आता होगा ।" 

नाविक ने कहा, "मैंने कहा न बाबूजी, मुझे कुछ नहीं आता ।"

प्रो. साहब ने कहा, "अरे भाई, हिन्दी की किताब तो पढ़ लेता होगा ?" 

नाविक ने कहा, "बाबूजी, मैं एक अक्षर भी नहीं पढ़ पाता हूँ । मैं तो अनपढ़ आदमी हूँ ।" 

प्रो. साहब ने कहा, "तेरी जिन्दगी तो बेकार पानी ही पानी में चली गई ।" 

इस तरह नाव बढ़ती हुई जा रही थी कि अनायास तूफानी हवा चलने लगी, जिससे नाव डगमगा उठी । 

नाविक ने कहा, "बाबूजी, आपको तैरना आता है ?" 

प्रो. साहब ने कहा, "भाई ! मुझे तैरना नहीं आता ।" 

नाविक कहने लगा, "बाबूजी, आपकी सारी विद्याएँ यहाँ कुछ काम नहीं आयेंगी । अब आपकी जिन्दगी जरूर पानी में चली जायेगी ।" इतना कहकर नाविक ने पानी में छलांग लगा दी और तैरकर किनारे आ गया । प्रो. साहब नदी में डूबकर प्राणों से हाथ धो बैठे । 

इसी प्रकार जो भले ही अनेक शास्त्रों का ज्ञाता हो, किन्तु यदि उसे दुःखों से पार लगानेवाली अध्यात्म की विद्या नहीं आती है तो सम्पूर्ण शास्त्रज्ञान चतुर्गति के दुःखों से नहीं बचा सकता है । कहा भी है - 

आत्मज्ञान ही ज्ञान है, शेष सभी अज्ञान ।
विश्व शान्ति का मूल है, वीतराग विज्ञान ।।

क्योंकि दुनियादारी के ज्ञान से अपना प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है । प्रत्येक प्राणी का प्रयोजन सुख प्राप्त करना है । सुख जड़ पदार्थों के पास है ही नहीं और जिन अरहंत सिद्ध भगवान को शाश्वत सुख प्राप्त है, वे अपना सुख हमें दे नहीं सकते हैं । उन्होंने तो मार्ग बता दिया है, जो उस पर चलता है, वह शाश्वत सुख-शान्ति प्राप्त कर लेता है । 

वह सुख गुण आत्मा में है, अतः जो सम्यग्ज्ञान की ज्योति जलाकर आत्मा में उसकी खोज करता है, उसे प्राप्त हो जाता है । इसलिए धर्ममार्ग में आत्मज्ञान की बड़ी महिमा है । वह आत्मज्ञान अध्यात्म शास्त्रों के अध्ययन मनन और अवगाहन से प्राप्त होता है । कहा भी है - 

द्वादशांग का सार है, निश्चय आतमज्ञान ।
आतम के जाने बिना, होगा नहीं कल्याण ।। 



Jain philosophy

                            श्री महावीराय नमः

                परम पूज्य श्री 108 हितेन्द्र सागर जी महाराज
*पूर्वजन्मों के संबंधों के बिना वर्तमान जीवन में किसी से घनिष्ठ मित्रता असंभव है। यह एक सच्चाई है। जब आप किसी के साथ मित्रता का अनुभव करते हैं, तो इसलिए  कि आप उस आत्मा को पहले से जानते हैं और पूर्वजन्मों के आत्मीय संबंधों के कारण ही आप अपने मित्र से निकटता का अनुभव करते हैं।*

     

Jain philosophy/Karam sidhant

                        श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः


अधिकांश लोग प्राय: ईश्वर से कर्म के लेखे-जोखे के संबंध में यही आशा करते हैं कि वे हमारे पुण्यों का फल हजार गुणा बढाकर दे दे, पर पापों की सजा बिलकुल नहीं दे, उन्हें भुल कर माफ कर दे, पर भगवान ऐसा करते नहीं है, वे वैसा ही करते हैं,जैसे पाप पुण्य रुपी कर्म थे।
हम प्राय: लोक व्यवहार में भी ऐसा ही चाहते हैं कि लोग हमें खुब सम्मान दे, हमारे दु:ख सुख में बहुत काम आये, हमारी मर्जी व खुशी के अनुसार अपनी भावनाएं व्यक्त करे, भले ही हम उसके अनुरुप आचरण नहीं करे।
हम जब भी किसी से ५०० का सौदा मांगते हैं या ५०० का छुट्टक मॉंगते हैं तो व्यवहारिक रीति से सामान ५०० का मिलता है, व छुट्टक में पॉंच सौ के नोट के बदले १०० के पॉंच नोट ही मिलते हैं अगर इस गणित से हमें एतराज है तो ...?
हम देना ५०० के बदले ३०० व लेने के समय १००० चाहे तो क्यों मिले? कितनी बार मिलें? या बिलकुल भी नहीं मिले या कोई क्यों स्वीकार करे।
हम जितना अपनी मर्जी का होना पसंद करते हैं, तो उतना दुसरों की मर्जी का करना होगा। सम्मान दे, सम्मान मिलेगा, अपमान दे, अपमान मिलेगा।
....इसलिए सचेत रह कर्म कीजिये क्योंकि  वो लौट कर हमारे पास आने ही हैं......

Jain philosophy/Gunsthan aur unka swaroop/ mithyatav

                          श्री महावीराय नमः    परम पूज्य मुनि 108 श्री हितेन्द्र सागर जी महाराज गुणस्थान:- मोह और योग के निमित से हो...