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Monday, May 8, 2017

Jain philosophy/Karam sidhant

                        श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः


अधिकांश लोग प्राय: ईश्वर से कर्म के लेखे-जोखे के संबंध में यही आशा करते हैं कि वे हमारे पुण्यों का फल हजार गुणा बढाकर दे दे, पर पापों की सजा बिलकुल नहीं दे, उन्हें भुल कर माफ कर दे, पर भगवान ऐसा करते नहीं है, वे वैसा ही करते हैं,जैसे पाप पुण्य रुपी कर्म थे।
हम प्राय: लोक व्यवहार में भी ऐसा ही चाहते हैं कि लोग हमें खुब सम्मान दे, हमारे दु:ख सुख में बहुत काम आये, हमारी मर्जी व खुशी के अनुसार अपनी भावनाएं व्यक्त करे, भले ही हम उसके अनुरुप आचरण नहीं करे।
हम जब भी किसी से ५०० का सौदा मांगते हैं या ५०० का छुट्टक मॉंगते हैं तो व्यवहारिक रीति से सामान ५०० का मिलता है, व छुट्टक में पॉंच सौ के नोट के बदले १०० के पॉंच नोट ही मिलते हैं अगर इस गणित से हमें एतराज है तो ...?
हम देना ५०० के बदले ३०० व लेने के समय १००० चाहे तो क्यों मिले? कितनी बार मिलें? या बिलकुल भी नहीं मिले या कोई क्यों स्वीकार करे।
हम जितना अपनी मर्जी का होना पसंद करते हैं, तो उतना दुसरों की मर्जी का करना होगा। सम्मान दे, सम्मान मिलेगा, अपमान दे, अपमान मिलेगा।
....इसलिए सचेत रह कर्म कीजिये क्योंकि  वो लौट कर हमारे पास आने ही हैं......

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