श्री महावीराय नमः
• अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल –
इस तीन लोक के मध्य क्षेत्र में स्थित अढ़ाई द्वीप के भरत-ऐरावत के 10 क्षेत्रों की धुरी पर ही इस संसार का काल-चक्र हमेशा घूमता रहता है।
जब काल-चक्र उत्तम से निम्न काल की तरफ जाता है तो अवसर्पिणी काल कहलाता है
लेकिन जब यह नीचे से ऊपर की तरफ जाता है तो उत्सर्पिणी काल कहलाता है।
साथ ही 5 भरत, 5 ऐरावत, 5 महाविदेह के 15 कर्मभूमि क्षेत्रों में ही तीर्थंकर प्रभु जन्म लेते हैं।
एक एक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी में 24-24 तीर्थंकर एक-एक भरत ऐरावत क्षेत्र में होते हैं। 10 ही भरत-ऐरावत क्षेत्रों में 24-24 तीर्थंकर ऐसे कुल 240 तीर्थंकर समकालीन होते हैं। महाविदेह क्षेत्र में समय का चक्र चलता अवश्य है।
वहां रात के बाद दिन और फिर रात होती है
परन्तु अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का काल-चक्र एक सा ही रहता हुआ स्थिर रहता है
अतः वहां पर अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी जैसा कुछ भी नहीं होता है।
महाविदेह क्षेत्र का समय सदाकाल एक सा ही रहता है और वहां सदैव चतुर्थ आरे के प्रारम्भ काल के समान समय रहता है।
अवसर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है -
1) पहला काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
2) दूसरा काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
3) तीसरा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
4) चौथा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
5) अभी वर्तमान में चल रहा पंचम काल 21 हजार वर्ष का होता है.
6) छठा काल 21 हजार वर्ष का होता है.
इसके बाद उत्सर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है –
1) पहला काल 21 हजार वर्ष का होता है.
2) दूसरा काल 21 हजार वर्ष का होता है.
3) तीसरा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
4) चौथा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
5) पंचम काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
6) छठा काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
इस तरह अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के कुल काल का योग 20 कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
इसे एक कल्पकाल कहते हैं.
जब अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के असंख्य कल्पकाल बीत जाते हैं,
तब एक हुंडावसर्पिणी काल आता है. यह एक विशेष काल होता है और इसमें कई तरह के विरोधाभास भी देखने में आते हैं.
हम सभी शायद एक तरह से बहुत भाग्यवान हैं, जो अनंत-अनंत सागर बीतने पर होने वाले इस हुंडावसर्पिणी काल के साक्षी हो रहे हैं.
यहाँ समय की इकाई सागर का कथन बार-बार आया है. सागर समय की बहुत बड़ी इकाई होती है जिसकी कल्पना भी आज के वैज्ञानिक नहीं कर सकते हैं.
जैन शास्त्रों में भी हर जगह इस इकाई का वर्णन अक्सर आता रहता है.
इसका प्रमाण या विवरण इस तरह से है –
• अगर हम दो हजार कोस गहरे तथा इतने ही व्यास की चौड़ाई वाले गोलाकार गड्डे में कैंची से जिसके दो टुकडे न हो सकें ऐसे एक से सात दिन की उम्र के उत्तम भोगभूमि के मेंढें के बालों से भर दें और फिर उसमें से सौ-सौ वर्ष के अंतर से एक-एक बाल निकालें, तो जितने काल में उन सब बालों को निकाल दिया जायेगा, उसे एक व्यवहारपल्य कहते है; व्यवहारपल्य से असंख्यातगुने समय को उद्धारपल्य और उद्धारपल्य से असंख्यातगुने काल को अद्धापल्य कहते हैं। इस तरह के दस कोड़ाकोड़ी (10 करोड़ गुणा 10 करोड़) अद्धापल्यों का एक सागर होता है।
• इसको अगर आप सरल तरीके से समझना चाहे, तो इस तरह से समझ सकते हैं –
किसी भी समुद्र के किनारे पर जाकर बैठ जाइए,
फिर एक सुई को हाथ में लेकर उस सुई की नोक को पानी में डालकर उसे सूखी रेत पर छिड़के.
फिर दुबारा सुई की नोक को पानी में डालकर उसे सूखी रेत पर छिड़के.
इस तरह अनवरत रूप से करते रहे.
जब वह सागर पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगा, तो समझना कि एक सागर बराबर समय बीत गया है.
जय जिनेन्द्र
• अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल –
इस तीन लोक के मध्य क्षेत्र में स्थित अढ़ाई द्वीप के भरत-ऐरावत के 10 क्षेत्रों की धुरी पर ही इस संसार का काल-चक्र हमेशा घूमता रहता है।
जब काल-चक्र उत्तम से निम्न काल की तरफ जाता है तो अवसर्पिणी काल कहलाता है
लेकिन जब यह नीचे से ऊपर की तरफ जाता है तो उत्सर्पिणी काल कहलाता है।
साथ ही 5 भरत, 5 ऐरावत, 5 महाविदेह के 15 कर्मभूमि क्षेत्रों में ही तीर्थंकर प्रभु जन्म लेते हैं।
एक एक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी में 24-24 तीर्थंकर एक-एक भरत ऐरावत क्षेत्र में होते हैं। 10 ही भरत-ऐरावत क्षेत्रों में 24-24 तीर्थंकर ऐसे कुल 240 तीर्थंकर समकालीन होते हैं। महाविदेह क्षेत्र में समय का चक्र चलता अवश्य है।
वहां रात के बाद दिन और फिर रात होती है
परन्तु अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का काल-चक्र एक सा ही रहता हुआ स्थिर रहता है
अतः वहां पर अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी जैसा कुछ भी नहीं होता है।
महाविदेह क्षेत्र का समय सदाकाल एक सा ही रहता है और वहां सदैव चतुर्थ आरे के प्रारम्भ काल के समान समय रहता है।
अवसर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है -
1) पहला काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
2) दूसरा काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
3) तीसरा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
4) चौथा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
5) अभी वर्तमान में चल रहा पंचम काल 21 हजार वर्ष का होता है.
6) छठा काल 21 हजार वर्ष का होता है.
इसके बाद उत्सर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है –
1) पहला काल 21 हजार वर्ष का होता है.
2) दूसरा काल 21 हजार वर्ष का होता है.
3) तीसरा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
4) चौथा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
5) पंचम काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
6) छठा काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
इस तरह अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के कुल काल का योग 20 कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
इसे एक कल्पकाल कहते हैं.
जब अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के असंख्य कल्पकाल बीत जाते हैं,
तब एक हुंडावसर्पिणी काल आता है. यह एक विशेष काल होता है और इसमें कई तरह के विरोधाभास भी देखने में आते हैं.
हम सभी शायद एक तरह से बहुत भाग्यवान हैं, जो अनंत-अनंत सागर बीतने पर होने वाले इस हुंडावसर्पिणी काल के साक्षी हो रहे हैं.
यहाँ समय की इकाई सागर का कथन बार-बार आया है. सागर समय की बहुत बड़ी इकाई होती है जिसकी कल्पना भी आज के वैज्ञानिक नहीं कर सकते हैं.
जैन शास्त्रों में भी हर जगह इस इकाई का वर्णन अक्सर आता रहता है.
इसका प्रमाण या विवरण इस तरह से है –
• अगर हम दो हजार कोस गहरे तथा इतने ही व्यास की चौड़ाई वाले गोलाकार गड्डे में कैंची से जिसके दो टुकडे न हो सकें ऐसे एक से सात दिन की उम्र के उत्तम भोगभूमि के मेंढें के बालों से भर दें और फिर उसमें से सौ-सौ वर्ष के अंतर से एक-एक बाल निकालें, तो जितने काल में उन सब बालों को निकाल दिया जायेगा, उसे एक व्यवहारपल्य कहते है; व्यवहारपल्य से असंख्यातगुने समय को उद्धारपल्य और उद्धारपल्य से असंख्यातगुने काल को अद्धापल्य कहते हैं। इस तरह के दस कोड़ाकोड़ी (10 करोड़ गुणा 10 करोड़) अद्धापल्यों का एक सागर होता है।
• इसको अगर आप सरल तरीके से समझना चाहे, तो इस तरह से समझ सकते हैं –
किसी भी समुद्र के किनारे पर जाकर बैठ जाइए,
फिर एक सुई को हाथ में लेकर उस सुई की नोक को पानी में डालकर उसे सूखी रेत पर छिड़के.
फिर दुबारा सुई की नोक को पानी में डालकर उसे सूखी रेत पर छिड़के.
इस तरह अनवरत रूप से करते रहे.
जब वह सागर पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगा, तो समझना कि एक सागर बराबर समय बीत गया है.
जय जिनेन्द्र