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Wednesday, May 10, 2017

Jain philosophy/सम्यग्दृष्टि की क्षमा

                           श्री महावीराय नमः
                परम पूज्य श्री 108 हितेन्द्र सागर जी महाराज


द्रव्यदृष्टि की क्षमा, सम्यग्दृष्टि की क्षमा

कवि रत्नाकर गृहस्थ होते हुए भी अत्यन्य शान्त थे एवं शिथिलाचार और रूढ़ियों के विरोधी थे । वे निरन्तर अपनी धर्म एवं साहित्य की साधना में तल्लीन रहते थे । दया, दान, जिनन्द्र भक्ति, संतोषादि उनके विशेष गुण थे । इसलिए उनकी सर्वत्र अच्छी प्रतिष्ठा एवं प्रतिभा की छाप अंकित थी ।

कुछ लोग स्वभावतः असहिष्णु एवं विघ्न संतोषी होते हैं । उनको दूसरों की कीर्ति उन्नती नहीं सुहाती है । वे अपनी जलन और ईर्ष्या के कारण गुणी जनों का पराभव करके उनके ऊपर कीचड़ उछालने में आनन्द मानते हैं । ऐसे ही कुछ धर्म द्रोही लोगों ने कवि की पगड़ी उछालना चाही ।

कुछ लोग अपने निर्धारित कुत्सित विचार के अनुसार कवि के पास आकर कहने लगे, "कल तो आप वेश्या के यहाँ नाच-गाने में बैठे शराब पी रहे थे, आज यहाँ शास्त्र पढ़ने का पाखण्ड रच रहे हो ।"

दूसरा बोला, "कल दिन को अड्डे पर जुआ खेल रहे थे । अज यहाँ धर्मात्मा बनने का ढोंग रच रहे हैं ।"

तीसरा बोला, "इसका बाप भी शराबी, जुआरी था ।"

चौथा कहने लगा, "इसकी माँ तो पक्की वेश्या थी और आज कविजी बड़े धर्मात्मा की पूंछ बन रहे हैं ।"

इतना सब कुछ कहने के बाद भी जब कवि कुछ भी नहीं बोले तो वे लोग स्वाध्याय की किताब छीनकर जाने लगे, तब कवि ने कहा, "भैया ! एक बात मेरी भी सुन लो । आपकी गुस्से में कितनी शक्ति क्षीण हो गई होगी, थोड़ा-सा ठण्डा पानी पीकर और भोजन करके जाना । आप लोग ठीक ही तो कह रहे हैं । किसी भव में ऐसा सबकुछ तो हुआ होगा । यह तो आप जानते ही हैं कि ये सब खोटे काम दुर्गति के कारण हैं । इस जीव ने अनन्त बार ऐसा किया तभी तो संसार में पंचपरावर्तन कर दुःख पा रहा है । इतना सुनते ही उन चारों पर घड़ों पानी पड़ गया । वे लोग कवि के पैर पकड़कर क्षमा याचना करने लगे और बोले, "यह क्षमा आपने कहाँ से सीखी है ?"

कवि ने समझाया, "भाई ! हमारी आत्मा तो क्षमा का, शान्ति का अखण्ड भण्डार है । हम जब पर्याय पर दृष्टि डालते हैं तो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, और जब द्रव्यस्वभाव को देखते हैं तो अखण्ड शक्ति सम्पन्न भगवान आत्मा ही दिखाई देता है, जो सब प्राणियों में विराजमान है । उस स्वभाव को भूलकर क्षणवर्ती पर्याय को अपना मानकर जीव पामर और दुःखी है । किन्तु यह राग-द्वेष विकार और संसार स्वभाव में नहीं है ; क्योंकि स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता और विभाव का सदा सदभाव नहीं रहता है ।" वे लोग कवि से इतने प्रभावित हुए कि उनके परमभक्त और सच्चे जैन धर्मानुयायी बन गये । धन्य है यह द्रव्यदृष्टि / सम्यगदृष्टि की क्षमा ।




Jain philosophy/Gunsthan aur unka swaroop/ mithyatav

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