परम पूज्य मुनि 108 श्री हितेन्द्र सागर जी महाराज गुणस्थान:- मोह और योग के निमित से होने वाली जीव के दर्शन,ज्ञान,और चरित्र गुणों की अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान 14 होते है। 1. मिथ्यात्व 2. सासदन गुणस्थान 3.मिश्र या सम्यग्मिथ्यात्व 4. असंयत या अविरत सम्यक्त्व 5. देशसंयत या संयतासंयत या देश विरत 6.प्रमत या प्रमत विरत 7. अप्रमत्त या अप्रमत्त विरत 8. अपूर्वकरण 9. अनिवर्तीकरण 10. सूक्ष्मसाम्प्राय 11. उपशान्त मोह 12. क्षीणमोह 13. सयोगकेवली 14. अयोगकेवली .
1.मिथ्यात्व:- मोक्ष मार्ग के प्रयोजनभूत जीवादि सात तत्वों में यथार्थ श्रदान न होने को मिथ्यात्व कहते हैं।मिथ्यात्व में जीव देह को आत्मा मानता हैं तथा अन्य पर पदार्थो को भी अपना मानता हैं।कषाय परिणामो से भिन्न ज्ञान मात्र आत्मा का अनुभव नही कर सकता हैं।मिथ्या देवशास्त्र की प्रतीति करता हैं।
• अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल –
इस तीन लोक के मध्य क्षेत्र में स्थित अढ़ाई द्वीप के भरत-ऐरावत के 10 क्षेत्रों की धुरी पर ही इस संसार का काल-चक्र हमेशा घूमता रहता है।
जब काल-चक्र उत्तम से निम्न काल की तरफ जाता है तो अवसर्पिणी काल कहलाता है
लेकिन जब यह नीचे से ऊपर की तरफ जाता है तो उत्सर्पिणी काल कहलाता है।
साथ ही 5 भरत, 5 ऐरावत, 5 महाविदेह के 15 कर्मभूमि क्षेत्रों में ही तीर्थंकर प्रभु जन्म लेते हैं।
एक एक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी में 24-24 तीर्थंकर एक-एक भरत ऐरावत क्षेत्र में होते हैं। 10 ही भरत-ऐरावत क्षेत्रों में 24-24 तीर्थंकर ऐसे कुल 240 तीर्थंकर समकालीन होते हैं। महाविदेह क्षेत्र में समय का चक्र चलता अवश्य है।
वहां रात के बाद दिन और फिर रात होती है
परन्तु अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का काल-चक्र एक सा ही रहता हुआ स्थिर रहता है
अतः वहां पर अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी जैसा कुछ भी नहीं होता है।
महाविदेह क्षेत्र का समय सदाकाल एक सा ही रहता है और वहां सदैव चतुर्थ आरे के प्रारम्भ काल के समान समय रहता है।
अवसर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है -
1) पहला काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
2) दूसरा काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
3) तीसरा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
4) चौथा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
5) अभी वर्तमान में चल रहा पंचम काल 21 हजार वर्ष का होता है.
6) छठा काल 21 हजार वर्ष का होता है.
इसके बाद उत्सर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है –
1) पहला काल 21 हजार वर्ष का होता है.
2) दूसरा काल 21 हजार वर्ष का होता है.
3) तीसरा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
4) चौथा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
5) पंचम काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
6) छठा काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
इस तरह अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के कुल काल का योग 20 कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है.
इसे एक कल्पकाल कहते हैं.
जब अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के असंख्य कल्पकाल बीत जाते हैं,
तब एक हुंडावसर्पिणी काल आता है. यह एक विशेष काल होता है और इसमें कई तरह के विरोधाभास भी देखने में आते हैं.
हम सभी शायद एक तरह से बहुत भाग्यवान हैं, जो अनंत-अनंत सागर बीतने पर होने वाले इस हुंडावसर्पिणी काल के साक्षी हो रहे हैं.
यहाँ समय की इकाई सागर का कथन बार-बार आया है. सागर समय की बहुत बड़ी इकाई होती है जिसकी कल्पना भी आज के वैज्ञानिक नहीं कर सकते हैं.
जैन शास्त्रों में भी हर जगह इस इकाई का वर्णन अक्सर आता रहता है.
इसका प्रमाण या विवरण इस तरह से है –
• अगर हम दो हजार कोस गहरे तथा इतने ही व्यास की चौड़ाई वाले गोलाकार गड्डे में कैंची से जिसके दो टुकडे न हो सकें ऐसे एक से सात दिन की उम्र के उत्तम भोगभूमि के मेंढें के बालों से भर दें और फिर उसमें से सौ-सौ वर्ष के अंतर से एक-एक बाल निकालें, तो जितने काल में उन सब बालों को निकाल दिया जायेगा, उसे एक व्यवहारपल्य कहते है; व्यवहारपल्य से असंख्यातगुने समय को उद्धारपल्य और उद्धारपल्य से असंख्यातगुने काल को अद्धापल्य कहते हैं। इस तरह के दस कोड़ाकोड़ी (10 करोड़ गुणा 10 करोड़) अद्धापल्यों का एक सागर होता है।
• इसको अगर आप सरल तरीके से समझना चाहे, तो इस तरह से समझ सकते हैं –
किसी भी समुद्र के किनारे पर जाकर बैठ जाइए,
फिर एक सुई को हाथ में लेकर उस सुई की नोक को पानी में डालकर उसे सूखी रेत पर छिड़के.
फिर दुबारा सुई की नोक को पानी में डालकर उसे सूखी रेत पर छिड़के.
इस तरह अनवरत रूप से करते रहे.
जब वह सागर पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगा, तो समझना कि एक सागर बराबर समय बीत गया है.
जय जिनेन्द्र
सम्राट उदयन ने चण्डप्रद्योत को बन्दी बना लिया, किन्तु पर्यूषण पर्व निकट आ जाने से उसने चण्डप्रद्योत से क्षमायाचना की ।
चण्डप्रद्योत की आँखें आग उगलने लगी और बोले, "क्षमा ! मैं और क्षमा ! कभी नहीं । यह ढोंग है । सम्राट एक बन्दी राजा से क्षमा माँगे । यह और कौनसी नई चाल है उदयन ! अब क्या शेष है मेरे पास ? जिसे हथियाने ईए लिए यह स्वाँग रचा है ? कहाँ राजमहलों में सुख की नींद, कहाँ यह लोहे का पिंजड़ा ? ओफ्फ, श्रृंखलाओं में बाँधकर भी तुम्हें सन्तोष नहीं हुआ ? हट जाओ मेरे सामने से । जले पर नमक छिड़कने आए हो ?"
सम्राट उदयन बोले, "मैं सचमुच क्षमा माँगने आया हूँ प्रद्योत । यह कोई चाल नहीं है । चण्डप्रद्योत मैं तुम्ही से क्षमा माँगने आया हूँ । मैंने आज क्षमावाणी पर्व मनाया है । आज मैं सम्राट नहीं, केवल मानव हूँ मानव । मैंने प्राणीमात्र से क्षमा माँगी है प्रद्योत । तुम भी मुझे क्षमा कर दो ।"
चण्डप्रद्योत बोले, "आह ! क्षमावाणी की भी यह विडम्बना । उदयन ! जाओ अपने मित्र राजाओं से क्षमा माँगो । अपने से बड़े राजाओं से क्षमा माँगो । मेरी क्षमा से तुम्हारा क्या होने वाला है ?"
सम्राट उदयन बोले, "नहीं प्रद्योत, ऐसा न कहो । उदयन हाथ जोड़ता है । क्षमा कर दो मुझे । तुम्हारे बिना मेरी क्षमावाणी अधूरी रह जाएगी ।" उदयन गिड़गिड़ाने लगा ।
चण्डप्रद्योत बोले, "तो सुनो सम्राट, क्षमा तब होती है, जब दोनों के मन से वैर विरोध निकल जाए । क्षमा तब होती है जब एक-दूसरे के मन स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाएँ । क्षमा तब होती है जब दोनों आपस में गले मिले । मैं श्रृंखलाओं में जकड़ा रहूँ और आप सिर पर सम्राट का मुकुट बाँधे रहें, क्या ऐसे में क्षमा संभव है ? क्षमावाणी मनाना है तो प्रद्योत सम्राट से सम्राट की तरह ही मिलेगा ।"
सम्राट उदयन ने सैनिक को बँधन खोलने हेतु आदेश दिया ।
उदयन की आज्ञा पाते ही प्रद्योत के बँधन खोल दिए गए । उसका राज्य उसे वापस देने की घोषणा कर दी गई ।
अपार जन-समुदाय के बीच लोगों ने देखा कि दो सम्राट गले मिल रहे हैं । बहुत काल से बिछड़े हुए भाइयों की तरह । उनकी आँखें डबडबा आई, वे क्षमावाणी जो मना रहे थे ।
कवि रत्नाकर गृहस्थ होते हुए भी अत्यन्य शान्त थे एवं शिथिलाचार और रूढ़ियों के विरोधी थे । वे निरन्तर अपनी धर्म एवं साहित्य की साधना में तल्लीन रहते थे । दया, दान, जिनन्द्र भक्ति, संतोषादि उनके विशेष गुण थे । इसलिए उनकी सर्वत्र अच्छी प्रतिष्ठा एवं प्रतिभा की छाप अंकित थी ।
कुछ लोग स्वभावतः असहिष्णु एवं विघ्न संतोषी होते हैं । उनको दूसरों की कीर्ति उन्नती नहीं सुहाती है । वे अपनी जलन और ईर्ष्या के कारण गुणी जनों का पराभव करके उनके ऊपर कीचड़ उछालने में आनन्द मानते हैं । ऐसे ही कुछ धर्म द्रोही लोगों ने कवि की पगड़ी उछालना चाही ।
कुछ लोग अपने निर्धारित कुत्सित विचार के अनुसार कवि के पास आकर कहने लगे, "कल तो आप वेश्या के यहाँ नाच-गाने में बैठे शराब पी रहे थे, आज यहाँ शास्त्र पढ़ने का पाखण्ड रच रहे हो ।"
दूसरा बोला, "कल दिन को अड्डे पर जुआ खेल रहे थे । अज यहाँ धर्मात्मा बनने का ढोंग रच रहे हैं ।"
तीसरा बोला, "इसका बाप भी शराबी, जुआरी था ।"
चौथा कहने लगा, "इसकी माँ तो पक्की वेश्या थी और आज कविजी बड़े धर्मात्मा की पूंछ बन रहे हैं ।"
इतना सब कुछ कहने के बाद भी जब कवि कुछ भी नहीं बोले तो वे लोग स्वाध्याय की किताब छीनकर जाने लगे, तब कवि ने कहा, "भैया ! एक बात मेरी भी सुन लो । आपकी गुस्से में कितनी शक्ति क्षीण हो गई होगी, थोड़ा-सा ठण्डा पानी पीकर और भोजन करके जाना । आप लोग ठीक ही तो कह रहे हैं । किसी भव में ऐसा सबकुछ तो हुआ होगा । यह तो आप जानते ही हैं कि ये सब खोटे काम दुर्गति के कारण हैं । इस जीव ने अनन्त बार ऐसा किया तभी तो संसार में पंचपरावर्तन कर दुःख पा रहा है । इतना सुनते ही उन चारों पर घड़ों पानी पड़ गया । वे लोग कवि के पैर पकड़कर क्षमा याचना करने लगे और बोले, "यह क्षमा आपने कहाँ से सीखी है ?"
कवि ने समझाया, "भाई ! हमारी आत्मा तो क्षमा का, शान्ति का अखण्ड भण्डार है । हम जब पर्याय पर दृष्टि डालते हैं तो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, और जब द्रव्यस्वभाव को देखते हैं तो अखण्ड शक्ति सम्पन्न भगवान आत्मा ही दिखाई देता है, जो सब प्राणियों में विराजमान है । उस स्वभाव को भूलकर क्षणवर्ती पर्याय को अपना मानकर जीव पामर और दुःखी है । किन्तु यह राग-द्वेष विकार और संसार स्वभाव में नहीं है ; क्योंकि स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता और विभाव का सदा सदभाव नहीं रहता है ।" वे लोग कवि से इतने प्रभावित हुए कि उनके परमभक्त और सच्चे जैन धर्मानुयायी बन गये । धन्य है यह द्रव्यदृष्टि / सम्यगदृष्टि की क्षमा ।
👉राम, सीता, लक्ष्मण और रावण के कर्मों की विचित्रता👈
राम : दीक्षा लेकर उसी भव में “सिद्धपद” की साधना करते हुए, केवल ज्ञान पाकर “मोक्ष” गए.
सीता: दीक्षा लेकर घोर तप करके १२वे देवलोक में “प्रतिंद्र” के रूप में उत्पन्न हुई.
देवलोक में रहते हुए श्री राम को “ध्यानमग्न” देखा. उनके साथ “धर्मचर्चा” करने की “इच्छा” जागी. “देवलोक” से “सीता” का रूप धारण करके उन्हें “उपसर्ग” किया किन्तु श्री राम विचलित नहीं हुवे. “राम” ध्यान में आगे बड़े….और “केवल ज्ञान” पाया.
तब सीता ने माफ़ी मांगी और लक्ष्मण और रावण के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की. श्री राम ने बताया कि लक्ष्मण “चौथी नरक” में है और “रावण” “तीसरी नरक” में.
चूँकि कोई भी देव “तीसरी नरक” से आगे नहीं जा पाता इसलिए “देव” (सीता) ने “तीसरी नरक” जाकर “रावण” को “प्रतिबोध” दिया.
आगे के भव:
१. “सीता” के कारण लक्ष्मण और रावण दोनों नरक से निकलकर मनुष्य और तिर्यंच के अनेक भव करते हुवे हर बार एक दूसरे को मारेंगे. इसलिए बार बार नरक में जाएंगे. अंत में नरक से निकलकर (कर्म भोगकर) सगे भाई बनेंगे जिनमें अत्यंत प्रेम होगा.
२. फिर देवलोक में उत्पन्न होंगे.
३. फिर साथ में “मनुष्य” का जन्म लेंगे.
४. फिर देवलोक में
५. फिर साथ में “राजपुत्र “(मनुष्य का जन्म लेंगे) बनेंगे. दीक्षा लेंगे.
६. फिर साथ में ७वे देवलोक में
७. अब “सीता” का जीव “भारत क्षेत्र” में “चक्रवर्ती” बनेगा. रावण और लक्ष्मण के जीव उनके “इंद्ररथ” और “मेघरथ” नाम के पुत्र बनेंगे.
८. तीनों मरकर अनुत्तर विमान में अहींद्र होंगे.
९. वहां से निकलकर “रावण” तीर्थंकर और “सीता” का जीव उनका “गणधर” बनेगा. लक्ष्मण का जीव “घातकी खंड” में चक्रवर्ती के साथ “तीर्थंकर” बनेगा.
विशेष:
जिस “रावण” ने “कुबेर” की पट्टरानी “उपरंभा”को वापस भेजा और वही “शीलवान” सीता के “रूप” के आगे हार गया.
कर्म की कैसी विचित्रता है!
हम कर्म कैसे कर रहे हैं, क्या अब भी उन्हें “समझना” नहीं चाहेंगे ?
राजा सत्यंधर विजया रानी को पाकर सभी राज्यकाज मंत्री काष्ठांगार को सौंपकर दिन-रात वासनाओं में मग्न रहने लगे । एक दिन अवसर पाकर मंत्री ने राजा सत्यंधर को समाप्त करने की योजना बना डाली । राजा को पता चलने पर उन्होंने गर्भवती विजया रानी को मयूरयंत्र (एक प्रकार का निश्चित अवधि तक हवा में उड़ने वाला वाहन) में बिठाकर उड़ा दिया । राजा के बहुत संघर्ष करने के बाद भी धोखेबाज मंत्री ने राजा को मार दिया ।
इधर वह मयूरयंत्र एक श्मशान में जाकर गिरा, जहाँ पर विजया रानी ने पुत्र जीवंधरकुमार को जन्म दिया । बालक के पालन-पोषण के लिए साधनविहीन असहाय विजया रानी बालक को वहीं पर छोड़कर पास में छिपकर बालक के भाग्य की परीक्षा करने लगी । इतने में सेठ गंधोत्कट अपने मृत बालक का अंतिम संस्कार करने श्मशान में आया था । वहाँ उसने इस सुन्दर सुडौल भाग्यशाली बालक जीवंधर को पाकर उसका यथाविधि पालन-पोषण किया ।
बालक के बड़े होने पर गंधोत्कट ने गुरु आर्यनंदी के पास उसे पढ़ने के लिए भेज दिया । जीवंधरकुमार जब पढ़कर पूरी तरह निष्णात हो गए, तब एक दिन गुरु आर्यनंदी ने अपने शिष्य जीवंधरकुमार से कहा, "बेटे ! जिस राज्य में तुम नगण्य प्रजा बनकर भटक रहे हो, वह राज्य तुम्हारा ही है । तुम इस राज्य के अधिपति राजा हो । तुम्हारे राज्य पर मंत्री काष्ठांगार ने अन्यायपूर्वक तुम्हारे पिता को मारकर अपना अधिकार कर रखा है । नौकर मालिक बना हुआ है और मालिक तुच्छ प्राणी ।"
यह सुनते ही जीवंधरकुमार का क्षत्रियत्व जाग उठा । वे काष्ठांगार पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो गये । यह देखकर गुरू आर्यनंदी ने कहा, "शिष्य ! अब तुम शास्त्र एवं शस्त्र दोनों ही विद्याओं में निपुण हो चुके हो, तब क्या मुझे गुरु दक्षिणा नहीं दोगे ?"
कुमार ने कहा, "गुरुदेव ! आपके चरणों में सर्वस्व समर्पित है । बोलिये, आपको गुरुदक्षिणा में क्या दूँ ?" गुरु ने कहा, "बेटे ! तुम एक वर्ष तक आक्रमण नहीं करोगे, मुझे यही गुरुदक्षिणा चाहिए । एक वर्ष तक तैयारी करो, उसके पश्चात ही आक्रमण करना ।" जीवंधरकुमार ने सहर्ष गुरु आज्ञा स्वीकार की और पूरी तैयारी करके एक वर्ष बाद चढ़ाई कर अपना राज्य प्राप्त कर लिया ।
इसी प्रकार यह संसारी प्राणी अपने ध्रुव स्वाभावी परमात्मा को भूलकर और प्राप्त पर्याय को ही अपना सर्वस्व मानकर इस संसार में भटकता हुआ दुःख भोगता रहता है । जब आचार्यदेव इसको सम्बोधित कर कहते हैं कि, "हे भव्य प्राणी ! तू पर्याय को गौणकर अपने द्रव्यस्वभाव को देख, अरे भव्यात्मा तुझे मात्र इस पर्याय को गौण करना है, इसका अभाव नहीं करना है । इसी प्रकार अपने द्रव्यस्वभाव को मुख्य करना है, उसे नवीन उत्पन्न नहीं करना है । तू तो स्वभाव से वर्तमान में ही अचिंत्य शक्तिशाली देव है, तू चैतन्य चिंतामणि रत्न है, तू ज्ञान और सुख का भंडार है, बाहर क्यों भटक रहा है ? तू देव ही नहीं देवाधिदेव परमात्मा है । द्रव्यस्वभाव से देखने पर सिद्ध जैसा त्रिकाल शुद्ध आत्मा भीतर विराजमान है, जिसे कारणपरमात्मा कहते हैं । ऐसा सुनकर जो जागृत हो उठता है, वही अनंत सुखी कार्यपरमात्मा बन जाता है ।"
1. मुझे वस्तु के अस्तित्व की श्रद्धा क्यों नहीं आती ? ऐसा स्वरूप को समझकर पकड़ ।
2. मेरा भगवान आत्मा मेरे पास सदैव विद्यमान है ।
3. जिन बिम्ब मेरा प्रतिबिम्ब हैं । जिन प्रतिमा जिन सारखी । मेरा ही द्रव्य अरिहन्त जैसा वीतरागी, परमात्मा जैसा है ।
4. भगवान मेरे समक्ष हैं, मुझमें ही हैं । सिर्फ मुझे अपना अन्तर्मुखी द्वार खोलना है ।
5. मैं सुख-शान्ति, आनंद, ज्ञान, पुरुषार्थ स्वरूप चैतन्य आत्मा हू ।
6. परम पारिणामिक, परम भाव स्वरूप परमात्मा हूँ एवं सभी से भिन्न हूँ ।
7. ''जानने योग्य जैसा जाना जाता है, वैसा ही मैं हूँ ।''
8. 'अहम' को मैंने अपने स्वभाव में स्थापित कर लिया है ।
9. ''सोsहम'' वही तो मैं हूँ । अनुभव और एकाग्रता की अपेक्षा स्वरूप की प्राप्ति का मार्ग पूरा हो जाता है ।
10. पूर्ण का आदर करनेवाला सम्पूर्ण हो जाएगा ।
अनेक विद्याओं के विशेषज्ञ प्रोफेसर साहब गंगा नदी पार करने के लिए नाव में बैठ गये । नाव में बैठे हुए उन्होंने नाविक से पूछा, "क्यों मल्लाह भाई ! तुमको ज्योतिष विद्या आती है क्या ?"
नाविक बोला, "बाबूजी, मुझे कुछ नहीं आता । मैं तो मूर्ख आदमी हूँ ।"
प्रो. साहब ने कहा, "तेरी जिन्दगी पानी में ही चली गई । अच्छा भाई, गणित तो तुझे आता होगा ।"
नाविक ने कहा, "मैंने कहा न बाबूजी, मुझे कुछ नहीं आता ।"
प्रो. साहब ने कहा, "अरे भाई, हिन्दी की किताब तो पढ़ लेता होगा ?"
नाविक ने कहा, "बाबूजी, मैं एक अक्षर भी नहीं पढ़ पाता हूँ । मैं तो अनपढ़ आदमी हूँ ।"
प्रो. साहब ने कहा, "तेरी जिन्दगी तो बेकार पानी ही पानी में चली गई ।"
इस तरह नाव बढ़ती हुई जा रही थी कि अनायास तूफानी हवा चलने लगी, जिससे नाव डगमगा उठी ।
नाविक ने कहा, "बाबूजी, आपको तैरना आता है ?"
प्रो. साहब ने कहा, "भाई ! मुझे तैरना नहीं आता ।"
नाविक कहने लगा, "बाबूजी, आपकी सारी विद्याएँ यहाँ कुछ काम नहीं आयेंगी । अब आपकी जिन्दगी जरूर पानी में चली जायेगी ।" इतना कहकर नाविक ने पानी में छलांग लगा दी और तैरकर किनारे आ गया । प्रो. साहब नदी में डूबकर प्राणों से हाथ धो बैठे ।
इसी प्रकार जो भले ही अनेक शास्त्रों का ज्ञाता हो, किन्तु यदि उसे दुःखों से पार लगानेवाली अध्यात्म की विद्या नहीं आती है तो सम्पूर्ण शास्त्रज्ञान चतुर्गति के दुःखों से नहीं बचा सकता है । कहा भी है -
आत्मज्ञान ही ज्ञान है, शेष सभी अज्ञान ।
विश्व शान्ति का मूल है, वीतराग विज्ञान ।।
क्योंकि दुनियादारी के ज्ञान से अपना प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है । प्रत्येक प्राणी का प्रयोजन सुख प्राप्त करना है । सुख जड़ पदार्थों के पास है ही नहीं और जिन अरहंत सिद्ध भगवान को शाश्वत सुख प्राप्त है, वे अपना सुख हमें दे नहीं सकते हैं । उन्होंने तो मार्ग बता दिया है, जो उस पर चलता है, वह शाश्वत सुख-शान्ति प्राप्त कर लेता है ।
वह सुख गुण आत्मा में है, अतः जो सम्यग्ज्ञान की ज्योति जलाकर आत्मा में उसकी खोज करता है, उसे प्राप्त हो जाता है । इसलिए धर्ममार्ग में आत्मज्ञान की बड़ी महिमा है । वह आत्मज्ञान अध्यात्म शास्त्रों के अध्ययन मनन और अवगाहन से प्राप्त होता है । कहा भी है -
*पूर्वजन्मों के संबंधों के बिना वर्तमान जीवन में किसी से घनिष्ठ मित्रता असंभव है। यह एक सच्चाई है। जब आप किसी के साथ मित्रता का अनुभव करते हैं, तो इसलिए कि आप उस आत्मा को पहले से जानते हैं और पूर्वजन्मों के आत्मीय संबंधों के कारण ही आप अपने मित्र से निकटता का अनुभव करते हैं।*
अधिकांश लोग प्राय: ईश्वर से कर्म के लेखे-जोखे के संबंध में यही आशा करते हैं कि वे हमारे पुण्यों का फल हजार गुणा बढाकर दे दे, पर पापों की सजा बिलकुल नहीं दे, उन्हें भुल कर माफ कर दे, पर भगवान ऐसा करते नहीं है, वे वैसा ही करते हैं,जैसे पाप पुण्य रुपी कर्म थे।
हम प्राय: लोक व्यवहार में भी ऐसा ही चाहते हैं कि लोग हमें खुब सम्मान दे, हमारे दु:ख सुख में बहुत काम आये, हमारी मर्जी व खुशी के अनुसार अपनी भावनाएं व्यक्त करे, भले ही हम उसके अनुरुप आचरण नहीं करे।
हम जब भी किसी से ५०० का सौदा मांगते हैं या ५०० का छुट्टक मॉंगते हैं तो व्यवहारिक रीति से सामान ५०० का मिलता है, व छुट्टक में पॉंच सौ के नोट के बदले १०० के पॉंच नोट ही मिलते हैं अगर इस गणित से हमें एतराज है तो ...?
हम देना ५०० के बदले ३०० व लेने के समय १००० चाहे तो क्यों मिले? कितनी बार मिलें? या बिलकुल भी नहीं मिले या कोई क्यों स्वीकार करे।
हम जितना अपनी मर्जी का होना पसंद करते हैं, तो उतना दुसरों की मर्जी का करना होगा। सम्मान दे, सम्मान मिलेगा, अपमान दे, अपमान मिलेगा।
....इसलिए सचेत रह कर्म कीजिये क्योंकि वो लौट कर हमारे पास आने ही हैं......
जैन धर्म में अक्षय तृतीया का महत्व:-
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भगवान आदिनाथ मुनि दीक्षा लेने के पश्चात छ: माह के उपवास की प्रतिज्ञा लेकर
ध्यान मग्न हो गये |
व्रत समाप्ति पश्चात वे आहार हेतु निकले किन्तु मुनियोचित आहार विधि का
ज्ञान ना होने के कारण
कोई उन्हें आहार नही दे सका |
इस प्रकार मुनियोचित आहार ना मिलने पर उन्हें एक वर्ष 13 दिन तक
और निराहार रहना पड़ा |
जब भगवान प्रयाग से विहार करते हुए हस्तिनापुर पधारे
तब हस्तिनापुर नरेश सोमप्रभ के छोटे भाई श्रेयांश ने उन्हें अपने महल से देखा
और उन्हें पूर्व जन्म में दिए
आहार दान कि विधि का स्मरण हो आया
और उन्होंने भगवान को नवधा भक्तिपूर्वक पड़गाया और इक्षु रस का शुद्ध आहार दिया |
वह पुण्य दिवस वैशाख शुक्ल तृतीया था | आदि प्रभु को इस सर्व प्रथम आहार दान के कारण हस्तिनापुर को महानता प्राप्त हो गई तथा यह पवित्र दिन अक्षय तृतीया के रुप में एक पर्व के नाम से प्रसिद्ध हो गया |
राजा श्रेयांश को दान के प्रथम प्रवर्तक के रुप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई | संसार में दान देने कि प्रथा इस आहार दान के पश्चात ही प्रचलित हुई |
अक्षय तृतीया महापर्व
आदिम तीर्थंकर प्रभो, आदिनाथ मुनिनाथ
आधी व्याधि अघ मद मिटे,
तुम पद में मम माथ
शरण चरण हैं आपके, तारण तरण जहाज
भव दधि तट तक ले चलो,
करुणाकर जिनराज
*प्रश्न : णमोकार मंत्र के पर्यायवाची नाम बताईये ?*
उत्तर - *अनादिनिधन मंत्र -* यह मंत्र शाश्वत है , न इसका आदि है और न ही अंत है ।
*अपराजित मंत्र -* यह मंत्र किसी से पराजित नहीं हो सकता है ।
*महामंत्र -* सभी मंत्रों में महान् अर्थात् श्रेष्ठ है ।
*मूलमंत्र -* सभी मंत्रों का मूल मंत्र अर्थात् जड़ है , जड़ के बिना वृक्ष नहीं रहता है , इसी प्रकार इस मंत्र के अभाव में कोई भी मंत्र टिक नहीं सकता है ।
*मृत्युंजयी मंत्र -* इस मंत्र से मृत्यु को जीत सकते हैं अर्थात् इस मंत्र के ध्यान से मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते हैं ।
*सर्वसिद्धिदायक मंत्र -* इस मंत्र के जपने से सभी ऋद्धि सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।
*तरणतारण मंत्र -* इस मंत्र से स्वयं भी तर जाते हैं और दूसरे भी तर जाते हैं ।
*आदि मंत्र -* सर्व मंत्रों का आदि अर्थात् प्रारम्भ का मंत्र है ।
*पंच नमस्कार मंत्र -* इसमें पाँचों परमेष्ठियों को नमस्कार किया जाता है ।
*मंगल मंत्र -* यह मंत्र सभी मंगलों में प्रथम मंगल है ।
*केवलज्ञान मंत्र -* इस मंत्र के माध्यम से केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकते हैं ।
*प्रश्न : णमोकार मंत्र कहाँ कहाँ पढ़ना चाहिए ?*
उत्तर - दुःख में , सुख में , डर के स्थान , मार्ग में , भयानक स्थान में , युद्ध के मैदान में एवं कदम कदम पर णमोकार मंत्र का जाप करना चाहिए । यथा -
*प्रश्न : क्या अपवित्र स्थान में णमोकार मंत्र का जाप कर सकते हैं ?*
उत्तर - यह मंत्र हमेशा सभी जगह स्मरण कर सकते हैं , पवित्र व अपवित्र स्थान में भी , किंतु जोर से उच्चारण पवित्र स्थानों में ही करना चाहिए । अपवित्र स्थानों में मात्र मन से ही पढ़ना चाहिए ।
*प्रश्न : णमोकार मंत्र ९ या १०८ बार क्यों जपते हैं ?*
उत्तर - ९ का अंक शाश्वत है उसमें कितनी भी संख्या का गुणा करें और गुणनफल को आपस में जोड़ने पर ९ ही रहता है ।
जैसे ९*३ =२७ , २ + ७ = ९
कर्मों का आस्रव १०८ द्वारों से होता है , उसको रोकने हेतु १०८ बार णमोकार मंत्र जपते हैं । प्रायश्चित में २७ या १०८ , श्वासोच्छवास के विकल्प में ९ या २७ बार णमोकार मंत्र पढ़ सकते हैं ।
*प्रश्न : आचार्यों ने उच्चारण के आधार पर मंत्र जाप कितने प्रकार से कहा है ?*
उत्तर - *वैखरी -* जोर जोर से बोलकर मंत्र का जाप करना चाहिए जिसे दूसरे लोग भी सुन सकें ।
*मध्यमा -* इसमें होंठ नहीं हिलते किंतु अंदर जीभ हिलती रहती है ।
*पश्यन्ति -* इसमें न होंठ हिलते हैं और न जीभ हिलती है इसमें मात्र मन में ही चिंतन करते हैं ।
*सूक्ष्म -* मन में जो णमोकार मंत्र का चिंतन था वह भी छोड़ देना सूक्ष्म जाप है । जहाँ उपास्य उपासक का भेद समाप्त हो जाता है । अर्थात् जहाँ मंत्र का अवलंबन छूट जाये वो ही सूक्ष्म जाप है ।
*प्रश्न : इस मंत्र का क्या प्रभाव है ?*
उत्तर - यह पंच नमस्कार मंत्र सभी पापों का नाश करने वाला है । तथा सभी मंगलों में प्रथम मंगल है । यथा -
*एसो पंच णमोयारो सव्वपावप्पणासणो ।*
*मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं होई मंगलं । ।*
मंगल शब्द का अर्थ दो प्रकार से किया जाता है ।
मंङ्ग = सुख । ल = ददाति , जो सुख को देता है , उसे मंगल कहते हैं ।
मंगल - मम् = पापं । गल = गालयतीति = जो पापों को गलाता है , नाश करता है उसे मंगल कहते हैं ।
मंत्र के प्रभाव से -
पद्मरुचि सेठ ने बैल को मंत्र सुनाया तो वह सुग्रीव हुआ ।
रामचंद्र जी ने जटायु पक्षी को सुनाया तो वह स्वर्ग में देव हुआ ।
जीवंधर कुमार ने कुत्ते को सुनाया तो वह यक्षेन्द्र हुआ ।
अंजन चोर ने मंत्र पर श्रद्धा रखकर आकाश गामिनी विद्या को प्राप्त किया ।
Yeah duniya karam pradhan hain , jo manushya jaisa karam karta hain use vaisa phal milta hain usse sabhi dharmo me mukhya roop se mana Gaya hain . sabhi dharam Karam ke vastvik swroop ko vividh prakar se uske astitva ko sidh karte hain.jain darshan me karam ki paribhasha batayi hain .
Karam ki paribhasha:- jab jeev (aadmi) raag dwesh se sanyukt har samay parispandan kriya hoti rahti hain usko samanya se mithyatav, avirti, pramad, kashay, aur yog in 5 roop me hota hain.in pancho ke Nimitt se aatma ke sath ek prakar ka( dusra) achetan dravya aa jata hain aur vah raag dwesh ka nimit pakar aatma ke sath bandh jata hain.samay pakar vah dravya, sukh aur dukh roop phal dene lagta hain oose KARAM kahte hain. Karam ke 2 prakar hote hain. 1. DRAVYA KARAM:- Sharir se ki hui kriya
( yeh mantra sab papo ka nash. kar atyant sukh dene wala hain )
Namo arihantanam
Namo sidhanam
Namo aairiyanam
Namo uvajhayanam
Namo loye savva sahunam
Param pujya angaar muni shri Hitendra sagar ji maharaj ki jaya ho
Param pujya vatsalaya varidhi Acharya vardhman sagar ji maharaj ki jaya ho namokar mahamantra video